परम पूजनीय परम तपस्वी श्री श्री हंस दास जी महाराज जी को कोटि कोटि प्रणाम !!

..... अन्य लोगों अथवा ग्राम वासियों ने उन्हे क्या गिला-शिकवा हो सकता था ? बस,इस घटना ने उनके जीवन का पासा ही पलट कर रख दिया। यह घटना दिसम्बर सन 1920 के आस पास की है। इस घटना से इनके संवेदनशील मन को इतना गहरा आघात पहुंचा कि उन्होने इस संसार से अपना रिश्ता नाता सदा सर्वदा के लिए तोड़ने का अपने मन में प्रण कर लिया। तब वह वहां से चल पड़े। भाग्यवश उस समय बाज़ार से एक साधु महात्माओं की मण्डली एक ओर जा रही थी, श्री हंस राज जी भी उनके साथ चल दिये। सन 1921 के प्रारमिभक महीनो में सांसारिक मोह-माया का पर्दा सदा के लिए इनके मन से उठ गया और प्रभु दर्शन पाने की अभिलाषा ने मन में प्रचण्ड रूप धारण कर लिया। साधु महात्माओं की टोली के साथ रहते हुये इनको एक आध्यातिमक क्षेत्र में ख्याति प्राप्त उदासी सम्प्रदाय के उच्च कोटि के महात्मा श्री साहिब दास के सम्बन्ध में पता चला। जो समय के उच्च कोटि के विद्वान व त्रिकाल दर्शी सन्त कहलाते थे। ज्योही महात्मा श्री हंस राज महान तत्वदर्शी श्री साहिब दास के पास पहुंचे, तब उन्हे दण्डवत प्रणाम करने के पश्चात उनके चरणों में बैठ गये। महात्मा हंस राज श्री साहिब दास के दर्शन करने मात्र से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने उनसे दीक्षा लेने का मन ही मन में संकल्प कर लिया। तब श्री हंसराज जी उनके पास ही रूक गये। सन 1921 के मध्य में एक दिन श्री साहिब दास जी ने शुभ महुर्त देखकर विधिवत इन्हे दीक्षा (भेख) देकर महात्मा हंसराज जी से महात्मा हंस दास बना दिया। उसके बाद वह अपने गुरू महाराज जी के र्इश्वर की भजन सेवा में लग गये। एक दिन गुरू जी ने अपने शिष्य महात्मा हंसदास जी को चिलम में सुलफा भर लाने के लिए कहा। गुरू जी ने पहली बार ही महात्मा हंस राज जी को दीक्षा (भेख) देने के पश्चात चिलम भरने के लिए कहा था। तब महात्मा हंसदास जी ने गुरू जी को कहा कि महाराज मैं सुलफा पीने की आदत को उचित नही समझता इसलिए आप मुझे क्षमा करे। तब गुरू साहिब दास जी ने इनको वहां से चले जाने के लिए कह दिया। उसके पश्चात महात्मा श्री हंसदास जी नाहन पहुंच गये वहां समीप के एक जंगल में रहते हुए अपनी साधना में इतने तल्लीन हो गये कि लगभग दो वर्ष की अवधि ऐसे बीत गर्इ कि मानो यह कल की बात हो। उन जंगलों में खूंखार शेर, हाथी व अन्य हिंसक जानवर रहते थे। कर्इ बार महात्मा हंसदास जी को इनका सामना करना पड़ा। उसके बाद वह पंजाब के जि़ला मुख्यालय होशियारपुर पहुंच गये। वहां कुछ दिन रहने के पश्चात वह व्यास नदी के निकट बसे देहरा नगर में आ गये। इनको यह स्थान साधना के लिए बड़ा अच्छा लगा। इन्होने नदी के किनारे अपना धूंना चेतन कर दिया। इन्होने व्यास नदी के साथ सारे क्षेत्र का भ्रमण किया। अन्त में तलवाड़ा के निकट संसारपुर गांव के अन्तर्गत व्यास नदी के किनारे पेख नामक स्थान जो घने बांसो वाले जंगल के साथ लगता था, को अपनी साधना के लिए उपयोगी समझा। यह इस स्थान पर 1926 के आस पास आये और एक वर्ष तक तपस्या करते रहे। तब उसके बाद महात्मा श्री हंसदास जी अपनी तपस्या में लीन हो गये। यह वन के कन्दमूल खाकर अपनी जठरागनि शान्त कर लेते थे। जब कन्दमूल न मिलते तब ये वृक्षों के पत्ते चबाकर शीतल पानी पीकर अपनी भूख प्यास को शान्त कर लेते थे। बस इनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि इनके तपोबल में इतनी महाशकित पैदा हो चुकी थी कि उनकी महाशकित के अदभुत चमत्कार कोर्इ सौभाग्यशाली व्यकित ही देख सकता था। कुछ समय पश्चात लोगों का वहां आना जाना बहुत बढ़ गया। तब उन्होने देखा कि लोगों के आने से उनकी साधना में विघ्न पड़ रहा है तब उन्होने पेख बाला अपना स्थान त्याग कर व्यास नदी के दूसरे किनारे चले गये और अपनी साधना में लीन हो गये। इस प्रकार वह व्यास नदी के बर्फानी जल में घण्टो खड़े रहकर अपनी तपस्या करते रहते। सन 1927 से लेकर 1936 के आस पास तक वह वहां तपस्या करते रहे। इसके बाद वह श्री सुदामा राम को दिखार्इ देने के पश्चात उनके प्रकट होने का समाचार धीरे धीरे सभी ओर फैल गया। एक बार एक मछुआरे ने मछलियों को पकड़ने के लिए जाल बिछाया जब उसने जाल को खींचा तो जाल बहुत भारी हो गया। उसने सोचा आज बहुत मछलियां फंस गर्इ हैं । जब उसने जाल को बाहर खींचा तो उसमें महात्मा श्री हंस राज जी थे। उनकी लम्बी लम्बी व काली जटाऐं थी और वह जल में समाधि लगाये बैठे थे। तब उसने महाराज जी से क्षमा मांगी और महाराज जी ने उसको वहां से जाने को कह दिया। तब उसने यह बात सभी गांव वासियों को बतार्इ । बस वह दिन में घने जंगल में साधना में लीन रहते तथा रात के समय अपनी धुने पर आकर अपनी साधना में फिर लीन हो जाते। उसके बाद श्री सुदामा राम जी ने उनको तपस्या करते देखा जो कर्इ वर्षों तक उनके द्वारपाल बनकर उनकी सेवा करते रहे। धीरे धीरे उनकी ख्याति चारों और फैल गर्इ । सभी लोग अपने दुख दर्द की कहानियां तथा अपनी जटिल समस्याऐं इनके पास आकर सुनाने लगे। वह लोगों की बात को बड़े ध्यान से सुनते थे और उनके दुख निर्वारण हेतु वह अपनी करामाती धूप विभुति तथा लौग इलायची को सेवन के लिए देते थे। जिससे लोगों के वर्षों पुराने क्लेश, कष्ट दूर हो जाते थे। असाध्य रोग ग्रस्त व्यकित जो अपने जीवन से तंग व निराश होकर इनकी शरण में आते थे वह सब अपनी मनचाही इच्छा पूरी होने पर खुशी खुशी अपने घरों को लौट जाते थे। उनकी तपस्या और तपेाबल के कारण श्रद्धालुओं की भीड़ प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। श्री सुदामा राम ने स्वंय व लोगों के सहयोग से कैन्डु वृक्ष के सामने पहाड़ की खुदार्इ करके एक गुफा का निर्माण किया। तब श्री गुरू हंसदास जी महाराज जी ने अपना धूना स्थार्इ रूप से वहां स्थानान्तरित कर लिया। अब वे गुफा के भीतर अपने साधना करने लगे और बाहर से आने वाली संगत कुटिया में विश्राम करने लगी और देखते ही देखते श्री गुरू महाराज जी ने एक विशाल डेरे का निर्माण कर दिया। यहां पर संगत के लिए लंगर, विश्राम करने के लिए कमरों का निर्माण किया गया। इस तरह हज़ारों लाखों की संख्या में लोंग उनके दर्शन करने आने लगे और नाम उनसे नाम दीक्षा ले ली व इसी तरह संगत को र्इश्वर की भकित करते हुए संगत को नाम के साथ जोड़ते चले गये। महाराज जी पुरूष को नारायण और औरत को देवी कहकर पुकारा करते थे। वह बड़े दयालु व शान्त स्वभाव के थे। दुर्भाग्यवश 21 जून 1979 को श्री हंसदास जी महाराज जी ने अपना चोला त्याग दिया। महात्मा जी श्री हंसदास जी महाराज जी जैसे महान तपस्वी, सन्त की कमी हम कभी भी पूरी नही कर सकते। उन्होने खुद दुख सहकर संगत के दुख दूर किये और संगत को र्इश्वर नाम के साथ जोड़ा। उनके शरीर त्यागने का दुख सभी संगत के दिलो में मिलता रहेगा । चोला त्यागने से पहले श्री हंसदास जी महाराज जी ने कहा था कि हम चोला त्यागने के बाद हमेशा के लिए धूना साहिब में विलीन हो जायेंगे। श्री हंसदास जी महाराज जी को करोड़ करोड़ बार प्रणाम ।

मंत्र सिमरण करे -- मौक्श्र का मार्ग ।।